रक्षाबंधन: भाई-बहन के रिश्ते को मजबूत बनाने का अवसर

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Raksha Bandhan: श्रावणी जड़ों की ओर लौटना सिखाती है। रक्षा बंधन रिश्तों की गरिमा को समझना सिखाता है। संस्कृत दिवस अपने बौद्धिक उत्तराधिकार को संजोने का भाव देता है। यही कारण है कि यह पर्व, एक नहीं बल्कि तीन नामों से जाना जाता है ।

भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि यहां हर पर्व केवल पूजा का अवसर नहीं, बल्कि जीवन के गहन मूल्यों का भी उत्सव होता है। श्रावण मास की पूर्णिमा/रक्षा बंधन (9 अगस्त) ऐसा ही विशेष पर्व है, जो अपने भीतर आध्यात्मिकता, आत्मीयता और बौद्धिकता को समेटे हुए है। यही कारण है कि यह दिन तीन भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है- श्रावणी, रक्षा बंधन और संस्कृत दिवस। इन तीनों पर्वों के पीछे न केवल ऐतिहासिक संदर्भ हैं, बल्कि समाज और संस्कृति से जुड़ी स्मृतियां भी हैं।

इस पर्व का ‘श्रावणी’ नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि इस दिन श्रवण नक्षत्र में पूर्णिमा का संयोग होता है। वैदिक काल से ही इस दिन को विशेष रूप से उपाकर्म संस्कार के लिए पवित्र माना गया है। उपाकर्म का अर्थ होता है- ज्ञान, तप और जीवन की एक नई शुरुआत। इस दिन ब्राह्मण पुरोहित पवित्र नदियों या तीर्थों में स्नान कर तर्पण करते हैं, संकल्प लेते हैं और नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं। इसी दिन वे अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधते हैं और वैदिक मंत्रों के साथ उनके लिए संकटों से रक्षा की कामना करते हैं। यह परंपरा केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, अनुशासन और आध्यात्मिक पुनर्निर्माण का प्रतीक है। घरों में इस दिन श्रवण नक्षत्र की पूजा होती है।

समय के साथ इस पर्व ने एक सुंदर सामाजिक रूप रक्षा बंधन के नाम से धारण किया। यद्यपि इस परंपरा की जड़ें भी वैदिक युग में ही हैं। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार, जब इंद्र असुरों से युद्ध में पराजित हो रहे थे, तब इंद्राणी ने उनके दाहिने हाथ में रक्षा सूत्र बांधा, जिससे वे विजयी हो सकें। यह परंपरा धीरे-धीरे पुरोहितों द्वारा यजमानों को रक्षा सूत्र बांधने और बाद में बहनों द्वारा भाइयों को राखी बांधने के रूप में परिवर्तित हो गई। यह पर्व परिवार को जोड़ता है, रिश्तों को संबल देता है।

श्रावणी पूर्णिमा का तीसरा रूप है- ‘संस्कृत दिवस।’ संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की प्राचीनतम ज्ञान परंपरा का मेरुदंड है। यह वेद, उपनिषद्, पुराण, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष और योग की भाषा है। संस्कृत में संपूर्ण जीवनदर्शन समाहित है। भारत सरकार ने 1969 में इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की। प्राचीन काल में गुरुकुलों में शिक्षा-सत्र की शुरुआत भी श्रावणी पूर्णिमा से ही होती थी।

श्रावणी पूर्णिमा केवल एक तिथि नहीं, बल्कि भारतीय चेतना का पर्व है। यह दिन हमें वैदिक अनुशासन की याद दिलाता है। पारिवारिक संबंधों की मधुरता से भावुक करता है और साथ ही उस भाषा की ओर लौटने की प्रेरणा देता है, जिसने इस देश को सत्य, शिव और सुंदर की ओर अग्रसर किया।

श्रावणी जड़ों की ओर लौटना सिखाती है। रक्षा बंधन रिश्तों की गरिमा को समझना सिखाता है। संस्कृत दिवस अपने बौद्धिक उत्तराधिकार को संजोने का भाव देता है। यही कारण है कि यह पर्व, एक नहीं बल्कि तीन नामों से जाना जाता है और तीनों मिलकर भारतीय संस्कृति के उस विराट स्वरूप को रचते हैं, जो समय की कसौटी पर सदैव खरा उतरता रहा है।

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